समाजसंवाद | १९ जुलाई | कामिल पारखे
(History) कभी मुंबई के माटुंगा लेबर कैंप के गवळी और मोरे नामक दो बौद्ध युवकों ने महाराष्ट्र विधानसभा में आग लगाने जैसा कदम उठाया था। १९७२ में जब देश आज़ादी की रजत जयंती मना रहा था, तब इन युवकों के दिलों में आक्रोश भरा हुआ था।
(History) पुणे ज़िले के बावडा गाँव में दलित बस्तियों का सामाजिक बहिष्कार और परभणी में एक दलित महिला को निर्वस्त्र करने जैसी घटनाओं के विरोध में गवळी और मोरे ने अपने मुँह में रखा केरोसीन हवा में फेंक कर उसमें आग लगा दी थी।
History) उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर हक्कभंग (विशेषाधिकार हनन) का आरोप लगाया गया। इसके बाद दलित युवाओं ने १५ अगस्त को ‘काला स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
‘साधना’ साप्ताहिक ने “२५ वर्षों में दलितों की आज़ादी” विशेषांक प्रकाशित किया, जिसमें राजा ढाले का लेख प्रमुख था। यह लेख इतना तीखा और विचारोत्तेजक था कि महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल मच गई। यह लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
ढाले ने लिखा: “संयुक्त महाराष्ट्र के लिए १०५ बलिदान देना पड़े, यह कैसी लोकतंत्र है? यह बलिदान किसने लिया, अंग्रेजों ने या अपनों ने? आमजन अपने दुखों के लिए विधानसभा के दरवाज़े पर जाते हैं और विधायक मिलने नहीं आते, केवल पुलिस भेजते हैं। फिर लोग अपने दुखों की आग न फेंके तो क्या करें?”
कुछ समय बाद एक अन्य युवक ने भी दर्शक दीर्घा से छलांग लगाकर विरोध दर्ज किया। वही युवक आगे चलकर विधायक और फिर विधानसभा अध्यक्ष बना. नगर ज़िले के बबनराव ढाकणे।
अब, विधानमंडल में अराजकता के चलते विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने अभ्यागतों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है।
