चित्रसंवाद | 18 जुलाई | डॉ. राजीव सूर्यवंशी
(Art) मैंने थिएटर में देखा हुआ पहली फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ थी। यह जानकारी मुझे मेरी माताजी से मिली, क्योंकि उस समय मेरी उम्र सिर्फ एक साल की थी। बाद में मैंने दो बटन वाली जैकेट पहनकर वह फिल्म दोबारा थिएटर में और अनगिनत बार टीवी पर देखी। दुर्भाग्य से जब मुझे फिल्मों का चाव लगा, तब तक जतीन उर्फ राजेश खन्ना का सितारा ढल चुका था। आम जनता के दिलों के ताज और सुपरस्टार के सिंहासन पर अब ‘साहब’ का कब्जा हो चुका था।
(Art) ‘एंग्री यंग मैन’ का दौर शुरू हो गया था। ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘त्रिशूल’ जैसी जबरदस्त फिल्में जैसे सिनेजगत को झकझोर रही थीं। इस तूफान में कुछ लचीले कलाकार टिके रहे, परंतु आत्ममुग्ध और चापलूसों से घिरे काकासाहब यह सब सह न सके।
(Art) हम जब उच्च माध्यमिक विद्यालय में थे तब हर संभव फिल्में देखना हमारी आदत थी। उस दौर में ‘मास्टरजी’ और ‘मकसद’ जैसी फिल्में भी हमने देखीं, जिससे राजेश खन्ना के प्रति हमारी नापसंदगी और बढ़ी। उस समय अमिताभ के दमदार व्यक्तित्व के सामने खन्ना बहुत कमजोर लगते थे।
बाद में समझ बढ़ी, तो ‘खन्ना मैटिनी’ की असली मिठास महसूस हुई। ‘राज’, ‘आनंद’, ‘खामोशी’, ‘बावर्ची’, ‘इत्तेफाक’, ‘अपना देश’, ‘दुश्मन’, ‘नमक हराम’, ‘अंदाज़’ जैसे बेहतरीन फिल्मों से काका का अभिनय मन को छू गया। लगा, वह उतने भी बुरे नहीं थे। उनके कुछ मैनरिज़्म जरूर खटकते थे, लेकिन दूसरे इनिंग में ‘सौतन’, ‘अवतार’, ‘अमृत’, ‘आज का एमएलए’, ‘स्वर्ग’ जैसी फिल्में भी सराही गईं।
परंतु फिर राजनीति, टीवी सीरियल, सी-ग्रेड फिल्में, विज्ञापन सब कुछ करने के बावजूद राजेश खन्ना जैसे गुम ही हो गए। जब वह इस दुनिया से गए, तो साथ में सब थे… और शायद कोई भी नहीं था। उनके अंतिम शब्द थे: “पैक अप!” आज काकाजी की पुण्यतिथि पर उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।